Sunday, September 09, 2007

सुभद्रा - जबलपुर आगमन, मुश्कलें, और रचनायें: मिला तेज से तेज

(सुभद्रा कुमारी चौहान की जीवनी, इनकी पुत्री, सुधा चौहान ने 'मिला तेज से तेज' नामक पुस्तक में लिखी है। हम इसी पुस्तक के कुछ अंश, हंस प्रकाशन के सौजन्य से प्रकाशित कर रहें हैं। इस चिट्ठी में उनके जबलपुर जाने का करण, वा इनके लिखे गयी रचनाओं के बारे में है। सुभद्रा कुमारी चौहान की सारी रचनायें 'सुभद्रा समग्र' में हैं।

इन दोनो पुस्तकों को हंस प्रकाशन १८, न्याय मार्ग, इलाहाबाद दूरभाष २४२३०४ ने प्रकाशित किया है। 'मिला तेज से तेज' पुस्तक के पेपरबैक प्रकाशन का मूल्य ८० रूपये और हार्ड कवर का मूल्य १६० रूपये है। 'सुभद्रा समग्र' पुस्तक के हार्ड कवर का मूल्य ३५० रुपये है। इन दोनो पुस्तकों को आप हंस प्रकाशन से पोस्ट के द्वारा मंगवा सकते हैं।)


माखनलाल चतुर्वेदी ने जबलपुर से 'कर्मवीर' का प्रकाशन आरम्भ कर दिया। लक्ष्मण सिंह को पत्रकारिता एक ऎसा माध्यम लगा जिसके द्वारा देश-सेवा और जीविकोपार्जन दोनों का साथ-साथ निर्वाह हो सकता था। अबकी बार पति-पत्नी दोनों जबलपुर आये। पत्नी शायद सास के अनुशासन में रहकर मात्र सुघर गृहिणी बनकर सन्तुष्ट नहीं थी। उसके भीतर जो तेज था, काम करने का जो उत्साह था, कुछ नया कर जाने की जो लगन थी, उसके लिए घर की चहारदीवारी की सीमा बहुत छोटी थी। यों भी यह एक स्वाभाविक बात थी कि पति-पत्नी दोनों साथ रहना चाहते हों। जबलपुर से 'कर्मवीर' के प्रकाशन द्वारा उन दोनों को यह मनचाही राह मिल गयी। माखनलाला जी 'कर्मवीर' के प्रधान सम्पादक थे और लक्ष्मण सिंह, साहित्य-सम्पादक। माखनलाल जी कांग्रेस के नेता थे, उसके काम से उन्हें अक्सर बाहर रहना पड़ता था। ऎसी दशा में 'कर्मवीर' के सम्पादन का अधिकांश भार लक्ष्मण सिंह को ही उठाना पड़ता था।
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तभी सन् २८-२९ में इलाहाबाद के एक युवक प्रफुल्लचन्द्र ओझा 'मुक्त' के पत्र सुभद्रा के पास आने लगे। कालान्तर में उन्हीं की इच्छा और प्रयत्नों से सुभद्रा की कविताओं का पहला संग्रह 'मुकुल' के नाम से निकला।
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'मुकुल' प्रकाशित हुआ और हिन्दी-संसार ने दिल खोलकर उसका स्वागत किया। उसी वर्ष हिनदी साहित्य सम्मेलन ने लेखिकाओं के लिए सेकसरिया पुरस्कार की घोषणा की थी। पांच सौ रूपयों का यह पुरस्कार सबसे पहले 'मुकुल' को मिला। अपने गाढ़े दिनों में सुभद्रा को 'मुकुल' से एकमात्र यही पांच सौ रूपये की राशि प्राप्त हुयी जो उनके बहुत काम आयी। उसके बाद 'मुकुल' के कई संस्करण छपे, एकाधिक स्थानों पर वह पाठ्यपुस्तक के रूप में स्वीकृत हुआ, पर सुभद्रा को उससे कोई अर्थ प्राप्ति नहीं हुयी।
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इस बीच बिखरे मोती छप गया था और उस पर पुरस्कार भी मिल चुका था। एक दिन काका ने मां से कहा कि 'लाओ भाई, मैं भी तो पढ़ूं, कैसी हैं तुम्हारी कहानियां।' बाद में मां सदा हंसकर इस बात को बताती थीं, पर अपने साहित्य- रसिक पति से ही सबसे अन्त में प्रशंसा पाने का क्षोभ उनके मन में कहीं न कहीं रहा ही होगा।

मां की अधिकांश कहानियों का उत्स किसी न किसी सत्य घटना के भीतर होता था, लेकिन उसमें कल्पना का ताना-बाना उसे कुछ का कुछ बना देता था।

उनकी एक कहानी है, 'चढ़ा दिमाग'; उसमें सम्पादक जी लेखिका और लेखिका एक अन्य व्यक्ति को लिखे गये पत्रों के लिफाफे भूल से बदल देते हैं और लेखिका को सम्पादक जी का वह पत्र मिल जाता है, जो उन्होंने उस अन्य व्यक्ति को लेखिका की शिकायत करते हुए लिखा है कि वह न तो पत्रों का जवाब भेजती है और न कोई कहानी ही भेज रही है, उसके मूल में भी एक सत्य घटना है। श्री इलाचन्द्र जोशी जब 'विश्वमित्र' के सम्पादक थे तो उन्होंने मां को लिखा गया पत्र नर्मदाप्रसाद खरे को भेज दिया था और गलत लिफाफे में रखे जाने के कारण खरे जी को लिखा गया पत्र मां के पास आ गया था। उस कहानी में वर्णित कुर्की की घटना भी उनके अपने अनुभव की ही है।

इसी प्रकार 'एकादशी' में जिस ब्राम्हण बाल-विधवा का वर्णन है, वह भी सत्य घटना पर आधारित है और उस कहानी का डाक्टर सम्भवत: डाक्टर जार्ज डिसिलवा थे, जो एक अच्छे डाक्टर होने के साथ-साथ जबलपुर के एक बड़े ही नि:स्पृह और निडर कांग्रेस कार्यकर्ता थे, जिन्हें अपने उन्हीं गुणों के कारण कांग्रेस की नेताशाही में कभी कोई स्थान नहीं मिला।

मां की अधिकांश कहानियों में परिवार के कठोर अनुशासन में जकड़ी हुयी परवश नारी की पीड़ा या समाज से टक्कर लेने के लिए उद्यत विद्रोहिणी नारी के विवश क्रोध का स्वर ही प्रमुख है। उनकी कहानी की नायिका अपने व्यक्तित्व के सम्मान के लिए समाज को चुनौती दे सकती है, पुरूषों से बराबरी की मित्रता का सम्बन्ध बना सकती है। लेकिन उनकहानियों की विद्रोहिणी नारी बहुत सी कहानियों में अपने प्रति किये गये अन्यायों से हारकर, टूटकर या तो पागल हो जाती है या आत्महत्या कर लेने को विवश हो जाती है।

एक कहानी 'मंझली रानी' इस प्रकार शुरू होती है----

'वे मेरे कौन थे ? मैं क्या बताऊं ! वैसे देखा जाय तो वे मेरे कोई भी न होते थे। होते भी कैसे। मैं ब्राम्हण, वे क्षत्री; मैं स्त्री, वे पुरूष फिर न तो रिश्तेदार हो सकते थे और न मित्र। आह, यह क्या कह डाला मैंने! मित्र ? भला किसी स्त्री का कोई पुरूष भी मित्र हो सकता है और यदि हो भी तो समाज इसे बर्दाश्त करेगा ?... यदि कोई स्त्री किसी पुरूष से किसी प्रकार का व्यवहार रखती है, प्रेम से बातचीत करती है, तो वह स्त्री भ्रष्टा है, चरित्र-हीना है।'
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एक दीवाली की बात है, काका शहर से बाहर गये हुए थे और ऎन दीवाली के रोज माँ को सहसा ध्यान
आया कि बच्चों के लिए खिलौने, मिठाई, पटाखे मँगाने को उनके पास रूपये नहीं हैं। अब क्या हो ? तो उन्होंने बच्चों के लिए जो कविताएँ लिखी थीं, उनकी कापी उठायी और बच्चों को साथ लेकर वे स्कूली किताबों के एक प्रकाशक के घर पहुँचीं कि उसे कविता-पुस्तक देकर उससे कुछ रूपये ले लें। उन्हें पूरा विश्वास था कि रूपये मिल जायेंगे तो वहीं से बाजार जाकर दीवाली का सब सामान खरीद लिया जायगा। यही सोचकर उन्होंने बच्चों को भी साथ ले लिया। लेकिन माँ दुनियादारी से अनभिज्ञ हों तो हों , प्रकाशक तो अनभिज्ञ नहीं था। दीवाली के दिन कौन लक्ष्मी को अपने घर से जाने देता है। अत: प्रकाशक ने उस दिन रूपया देने से बिल्कुल इनकार कर दिया। इस आने जाने में जो दो- चार रूपये हाथ में थे वे भी ताँगे वाले को भेट हो गये । और माँ अपने बच्चों को लेकर निराश घर लौट आयीं । शाम को पाठक जी आये तो उन्हें मालूम हुआ कि बच्चों के लिए मिठाई, पटाखे आदि कुछ भी नहीं आये । वे उल्टे पाँव लौटे और घण्टे-दो-घण्टे बाद सब चीजें लेकर आ गये। बच्चे निराश होकर शाम से ही बिस्तरों पर दुबक गये थे। लेकिन फिर पटाखों के शोर-गुल में उन लोगों की निराशा आनन-फानन उड़ गयी और खूब धमाचौकड़ी मची।
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माँ और काका की अनुपस्थिति में इसी तरह लस्टम-पस्टम उनकी गिरस्ती की गाड़ी चलती रही। माँ अपनी किताब बेचकर जो कुछ मुझे दे गयी थीं और भी जो कुछ घर में मिला, उसका अधिकांश खेती में ही लग गया। एक दिन ऎसी स्थिति आयी कि घर कमा एक-एक पैसा चुक गया था। तब तक सरकारी भत्ता मिलना शुरू नहीं हुआ था। तब मेरी उम्र ऎसी नहीं थी कि मैं बहुत चिन्ता करती, फिर भी इस चिन्ता से कि कल यदि एक पैसे का भी खर्च सामने आ जाय तो मैं क्या करूंगी , मुझे रात को नींद नहीं आयी। माँ स्वयं इतनी ज्यादा खरीददारी करती थीं कि उनके घर में कभी किसी और को पैसा खर्च करने का मौका नहीं मिलता था । इसलिए खरीदारी करना या पैसा खर्च करना मुझे आता भी नहीं था । अपनी माँ कली यह फिजूलखर्ची की आदत इस समय हम बहन भाइयों के बहुत काम आयी। एक तो हमें पैसा खरचने की आदत नहीं पड़ी ,दूसरे अपनी माँ की अतिरिक्त खरीदारी के कारण हमारे पास इतने कपड़े थे कि साल भर तक तो एक भी कपड़ा बनवाने की जरूरत नहीं थी। यों भी घर में रोज की जरूरतों की सभी चीजें थीं। फिर भी साग-सब्जी खरीदने को, बिजली का बिल चुकाने को, महराजिन और महरी की तन्ख्वाह देने को और इसी तरह के दूसरे छोटे - मोटे कामों के लिए रूपयों की जरूरत पड़ती ही है। बहुत रात तक उधेड़-बुन करते-करते कभी मेरी आंख लग गयी। सबेरे भाइयों को स्कूल भेजने और खुद अपनी तैयारी करने की व्यस्तता में मैं रात की चिन्ता की बात भूल चुकी थी। दोपीर को पोस्टमैन चालीस रूपये का एक मनीआर्डर लेकर आया। बी.बी.सी. से मां की कविताएं फौज के लिए प्रसारित की गयी थीं, उसी का यह रूपया था। किसे यह कल्पना हो सकती थी कि अंग्रेज सरकार जिस कवि के मुक्त रहने में अपने अस्तित्व के लिए खतरा देखती है, उसी की कविता वह अपने सिपाहियों के लिए प्रसारित करेंगे ! जो हो, मुझको इस समय वह रूपया ऎसा ही लगा, जैसे भगवान् ने मेरी पुकार सुनकर भेजा हो।


मिला तेज से तेज
सुभद्रा कुमारी चौहान -बचपन, विवाह।। सुभद्रा - जबलपुर आगमन, मुश्कलें, और रचनायें।।

1 comment:

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

दिल गदगद हो गया. बंधु, इसी तरह सुभद्रा जी के बारे में आत्मकथा का अंश छापते रहिये.

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