Monday, May 04, 2009

विष्णु प्रभाकर - अपनो के बीच

स्वर्गीय श्री विष्णु प्रभाकर हिन्दी के जाने माने साहित्यकार थे। उनकी मृत्यु दिनांक १२ अप्रैल २००९ को हो गयी। हमारे लिये यह लेख, उनकी सलहज श्रीमती उषा मांगलिक ने लिखा है।

श्रद्घेय विष्णुप्रभाकर जी हिन्दी जगत के एक अमर व कीर्तिमान शिल्पी थे। अपनी रचनाओं के रूप में, उन्होंने हिन्दी को जो सम्पदा दी है हिन्दी जगत उसके लिए उनका सदा ऋणी रहेगा।

यह चित्र सन १९७२ में लिया गया था। लेखिका इस चित्र में सबसे दाहिने तरफ खड़ी है। उसके बाद दाहिने से बाई ओर लेखिका के पति स्वर्गीय श्री दया मित्र माँगलिक व माँगलिक के पिता स्वर्गीय श्री विषन स्वरूप तथा नन्दोई स्वर्गीय श्री विष्णु प्रभाकर बाई तरफ हैं। एवं नीचे बैठे दो व्यक्ति दांये से बांये मनोज मांगलिक व अभय माँगलिक हैं।

सार्वजनिक जीवन से हट कर परिवार व स्वजनों के बीच उनका एक अलग व्यक्तित्व था । उनको स्मरण करते हुए मैं आज उसी की चर्चा करना चाहूंगी।

प्रभाकर जी मेरे नन्दोई थे। अत: मेरे लिए वे सदा जीजाजी अथवा भाईसाहब ही रहे। आयु में वे मुझसे काफी बड़े थे। लेकिन मेरे और उनके बीच जो नाता था, उसके चलते हमलोग थोड़ी ठिठोली कर लेते थे। सबसे सुन्दर ठिठोली मेरी पोती आनन्दिता [लेखिका की पोती] ने की। लगभग आठ वर्ष पहले वे हमारे पास आये थे। उस समय आनन्दिता ४/५ साल की थी। एक दिन उसने उनसे पूछा
'बाबा आपका नाम क्या है'

लेखिका के छोटे पुत्र मनोज मांगलिक और उसकी पत्नी को आशिर्वाद देते हुऐ

उन्होने अपना विष्णु प्रभाकर बताया। शायद उस नामका उच्चारण करना, आनन्दिता के लिए शायद कठिन था। कुछ देर सोचने के बाद बोली,
'हमने आपका नाम पप्पू रख दिया है। हम आपको पप्पू बाबा कहेगें।'
इस पर प्रभाकर जी खूब हंसे और बोले,
'बुढापे में ही सही कोई तो मुझे पप्पू कहेगा।'
उस दिन से वे हमारे घर में 'पप्पू बाबा' ही बने रहे।

इलाहाबाद में फरवरी माह में अखिल भारतीय नाटक समारोह एक पुरानी परम्परा है। एक बार प्रभाकर जी इसके निर्णायक बन कर आये थे पर रहे हमारे साथ में ही। उस समय मुझे बहुत खांसी हो रही थे। रात में अधिक परेशान करती थी। रात खांसते-खांसते बैठे-बैठे बीतती थी। वे, रात को लगभग १२ बजे, प्रयाग संगीत समिति से आये। मुझे खांसते देख मेरी ननद से कहा,
'उषा को पहले गरम पानी फिर चाय बना कर पिलाओ।'
वे स्वयं मेरे पास बैठ मेरी कमर सहलाते रहे। अगले दिन मेरे पति से कहा,
'तुम्हारा पहला काम है उषा को डाक्टर के पास ले जाओ।'
यह थी उनकी सहृदयता अपनत्व और स्नेह की ऊष्मा।

जब वे 'आवारा मसीहा' लिख रहे थे तब लिखने के लिए हमारे पास बहुत बार आ कर रहे। क्योंकि दिल्ली में, उन्हें लिखने में व्यवधान होता था। उस समय हमे विशेष हिदायत थी कि हम किसी को यह नहीं बतायेंगे कि वे इलाहाबाद में है। उस समय उनकी नियमित दिनचर्या रहती थी। सबेरे एक घंटा टहल कर आते थे और शाम के समय एक घन्टा हम सबके साथ बातचीत करते थे। बाकी समय अपने लेखन में व्यस्त रहते थे। दिल्ली वापस जाने के ३/४ दिन पहले ही उनके लेखन में व्यतिक्रम होता था। तब वे अपने मित्रों और इलाहाबाद के साहित्यकारों से मिलने जाते थे। उस समय, उन्हें सबसे मिलाने ले जाने का सौभाग्य, मुझे ही मिलता था। वे स्वयं कहते थे,
'दयामित्र (मेरे पति) को अपना काम करने दो, तुम्हारे साथ चलते हैं।'

उनके साथ मुझे इलाहाबाद के लगभग सभी साहित्यकारों से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ—राम कुमार वर्मा, महादेवी वर्मा, इलाचन्द्र जोशी, अमृतराय आदि।

एक बार प्रभाकर जी, हिन्दी साहित्य सम्मेलन में भाग लेने इलाहाबाद आये। उस समय भी, सम्मेलन के कार्यक्रमों में सम्मिलित होने के लिए मैं ही उनके साथ रहती थी। अपने मित्रों से वे मेरा परिचय अलग अलग रूप में देते थे किसी से कहते
'इनसे मिलिए उषा मांगलिक, ये मेरी सेक्रेट्री हैं'
किसी से कहते,
'ये मेरी सलहज हैं'
किसी से कहते
'ये मेरे साले की पत्नी हैं'
और किसी से कहते
'ये मेरी ड्राइवर है।'
उनके इसी विनोदी स्वभाव के चलते, घर में बड़ा मधुर वातावरण बना रहता था।

मैं हमेशा से थोड़ा बहुत लिखती रही हूँ। कभी फुरसत में बैठे सब गप-शप कर रहे होते तो अनायास ही कहते,
'लाओ दिखाओ, क्या लिखा है'
पढ़कर कहते,
'कहाँ से नकल उतारी है। कहाँ से टीपा है।'

मै नाराज होकर कहती,
'जीजाजी, आप मेरा अपमान कर रहे है।'
वो कहते,
'भई इसे तुम अपमान समझो तो समझो - और यदि प्रशन्सा समझो तो बहुत बड़ी प्रशन्सा है। पढ़कर लगा- किसी मंजे हुए लेखक ने लिखी है। यदि तुमने लिखी है तो वास्तव में सराहनीय है।'
मेरी कई कहानियाँ उन्होने समाज कल्याण पत्रिका में प्रकाशित करवाई है। वे हमेशा कहते,
'लिखा करो। बहुत अच्छा लिख सकती हो। तुम तो बस दाल-रोटी चाय-पानी में लगी रहती हो या डन्डा लेकर अपने बच्चों के पीछे पड़ी रहती हो- पढो,पढो।'
मै कहती,
'अच्छा। जीजाजी यदि मैं लिखती रहूँ और दाल-रोटी व चाय-पानी बनाना भूल जाऊँ तो आप कल को ही दिल्ली भागते नजर आओगे।'
इस पर वे हँसते हुए कहते,
'तुम्हारे दाल-रोटी बनाते हुए भी भाग सकता हूँ। तुम्हारी जीजी की याद आई और मैं भागा।'

एक बार बिहार सरकार ने, उन्हें हिन्दी के वरिष्ठ लेखक के रूप में पुरस्कृत किया। पुरस्कार ले कर लौटते समय वे कुछ दिन हमारे पास रहे। पुरस्कार में सरस्वती प्रतिमा और कुछ धनराशि थी। हम लोगों ने विशेषकर मैंने उनसे ठिठोली की,
'जीजाजी इसमे हमारा भी हिस्सा होना चाहिए। कम से कम दस प्रतिशत तो मिलना ही चाहिए'
वे हँसकर बोले,
'तुम व्यापारी की पत्नी हो। तुम्हे प्रतिशत ज्यादा याद रहता है।'
मैंने कहा,-
'व्यापारियों से ज्यादा अधिकारियों को याद रहता है जीजाजी। सत्य तो यह है कि प्रतिशत उन्ही का अधिकार है।'
उन्हें यह पुरस्कार राबड़ी देवी ने दिया था। ठिठोली करते बोले,
'देखो कितनी बड़ी विडम्बना है। एक वरिष्ठ साहित्यकार को पुरस्कृत किया है एक निरक्षर-अनपढ़ नारी ने। जिसने मेरी एक कृति भी नही पढ़ी या सुनी होगी।'
प्रभाकर जीजा, हमारे पास बहुत बार आए हैं। मेरे तीनों बेटों के विवाह-समारोह में, दुख-सुख के भी अनेक अवसरों पर आकर
परिवार के एक सदस्य के समान रहे और सम्मिलित हुए हैं।

लेखिका बड़े पुत्र राज मंगलिक को आशिर्वाद देते हुऐ

हम लोग भी अक्सर दिल्ली जाते थे। मैं ही उनके पास अधिक दिन रहती थी। मेरे पति तो दो-चार दिन बाद ही वापस आ जाते थे। कुछ दिन और रूकने का सदा आग्रह करते थे। इधर अन्तिम वर्षों में मैं उनसे मिलने जल्दी जल्दी जाने लगी थी । अपने पति की मृत्यु के बाद जीजाजी की बीमारी और गिरते स्वास्थ के कारण-मेरा जाना अनिवार्य सा हो गया था।

३ फरवरी २००९ को मैं अन्तिम बार उनसे मलने गई। उस समय वे काफी कष्ट में थे। लेकिन चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। बल्कि एक अपूर्व ओज से चेहरा चमक रहा था। पूछने पर इतना ही कहा,
'दर्द तो बहुत है पर उपाय कुछ नहीं है।'
एक एक कर बातें बहुत की। पुरानी बातें, घटनाएं याद करते रहे। बीच-बीच में गफलत में आ जाते थे- (थक जाते होगें) अपने बेटे अतुल से कहा,
'मेरी फाइल निकालो। उषा मेरी कहानियाँ लिखेगी। मै बोलूगां।'
अतुल ने कहा,
'अभी आप मामीजी से बातें करिए। बाद में वे आपकी सभी कहानियाँ लिख देगी।'
मृत्यु से पहले वे अपनी आत्मकथा का चौथा भाग लिख रहे थे, जो अधूरा ही रह गया।

चलते समय मैं और मेरे पति उनके चरण छू कर प्रणाम करते थे और आशीर्वाद मांगते थे। इस बार चरण छूने का प्रश्न नहीं था। क्योंकि हिन्दुओं में लेटे हुए व्यक्ति के चरण नहीं छुए जाते और जीजाजी बैठ नहीं सकते थे। हाथ जोड़ कर जब उन्हें प्रणाम करने लगी तब उन्होनें मेरे जुड़े हाथ पकड़ लिए और बोले,
'इस बार उषा तुम मुझे आशीर्वाद देकर जाओ। मेरी मुक्ति का आशीर्वाद।'
मेरा मन और गला दोनों भर आए। कुछ क्षण अपने को संभाल कर बोली,
'आपको आशीर्वाद दे सकूं वह शक्ति मेरे पास कहाँ है जीजाजी पर उस सर्वशक्तिमान से प्रार्थना अवश्य करूंगी कि वह आपको कष्टों से मुक्ति दे।'

वही उनके अन्तिम दर्शन थे जो मेरे मानस पटल पर सदा सजीव रहेंगे।

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